Last Updated on August 27, 2018 by Jivansutra

 

Real Hindi Story of Yaksha Yudhisthira in Mahabharata

 

“प्रकृति का अध्ययन कीजिये, प्रकृति से प्रेम कीजिये, प्रकृति के समीप रहिये। यह आपको कभी असफल नहीं होने देगा।”
– फ्रैंक लियोड राइट

 

यक्ष और युधिष्ठिर की प्रश्न रुपी इस शानदार और प्रेरक कहानी का पिछला भाग आप Life Changing Story on Wonder in Hindi: दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य में पढ़ ही चुके हैं। अब प्रस्तुत है अगला भाग –

यक्ष ने पूछा – किस वस्तु के त्यागने से मनुष्य प्रिय होता है? किसे त्यागने पर शोक नहीं करता? किसे त्यागने पर वह धनवान होता है? और किसे त्यागकर वह सुखी होता है?

युधिष्ठिर बोले – मान को त्यागने से मनुष्य प्रिय होता है, क्रोध को त्यागने पर शोक नहीं करता, काम को त्यागने पर वह धनवान होता है और लोभ को त्यागकर वह सुखी होता है।

यक्ष ने पूछा – युधिष्ठिर! यह बताओ, मधुर वचन बोलने वाले को क्या मिलता है? सोच-विचारकर काम करने वाला क्या पा लेता है? जो बहुत से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है? और जो धर्मनिष्ठ है उसे क्या मिलता है?

युधिष्ठिर बोले – जो मीठी वाणी बोलता है वह सबको प्रिय होता है, सोच-विचारकर काम करने वाले को सफलता मिलती है; जो बहुत से मित्र बना लेता है, वह सुख से रहता है और जो धर्म के मार्ग पर दृढ है उसे सद्गति मिलती है।

यक्ष ने पूछा – हे युधिष्ठिर! अब यदि तुम मेरे इस अंतिम प्रश्न का भी समुचित उत्तर दे दो, तो तुम्हारे सभी भाई निश्चय ही जीवित हो जायेंगे यह बताओ कि इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है और वार्ता क्या है?

युधिष्ठिर बोले – प्रतिदिन लाखों प्राणी नियमित रूप से यमराज के घर जा रहे हैं; लेकिन जो मनुष्य जीवित बचे हुए हैं, वे यह देखकर भी हमेशा जीवित रहने की इच्छा करते हैं – यही इस दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है।

मनुष्य मृत्यु को अनिवार्य जानकर भी, अधर्म और अन्याय के द्वारा संपूर्ण जीवन भोगों की उपलब्धि में ही खर्च कर देता हैं, इस सत्य को भूलकर कि ये समस्त भोग उसका यहीं त्याग कर देंगे और केवल धर्म ही उसका अनुसरण करेगा, इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा?

इस महामोहरूप कडाह में काल भगवान् समस्त प्राणियों को मास और ऋतुरूप करछुल से उलट-पलटकर, सूर्यरूप अग्नि और रात-दिनरूप ईंधन के द्वारा राँध रहे हैं यही वार्ता है। यह यक्ष और कोई नहीं बल्कि स्वयं भगवान् धर्म ही थे, जो महाराज युधिष्ठिर की परीक्षा लेने आये थे।

युधिष्ठिर की धर्म में अत्यंत निष्ठा जानकर और उनके उत्तरों से प्रसन्न होकर भगवान धर्म उनके चारों भाइयों को जीवनदान देकर और वर देकर अपने लोक वापस लौट गये। आज न तो वह युग है और न ही पांडव हैं, लेकिन फिर भी उनकी कमनीय कीर्ति इस संसार में फैली हुई है, तो यह सिर्फ इस कारण हैं कि उन्होंने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी धर्म का परित्याग नहीं किया।

भीषण और मृत्युतुल्य कष्ट सहकर भी उन्होंने धर्म के मार्ग को नहीं छोड़ा, बल्कि प्रत्येक स्थिति में उस पर अचल रहे और धर्मपालन का यह महाव्रत ही वह कारण था जिसने महाभारत के उस अतिघोर युद्ध में एक अभेदय कवच की तरह उनकी रक्षा की।

इस दुष्कर धर्म का पालन करने के कारण ही स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण को (जो नररूप में स्वयं महाकाल थे) उनकी सुरक्षा करने और विजय सुनिश्चित करने के लिए आगे आना पड़ा। क्योंकि जहाँ धर्म है, वहीँ ईश्वर हैं और जहाँ ईश्वर है, वहीँ जय है।

“यदि आप वास्तव में मृत्यु की जीवट को निहारना चाहते हैं, तो अपने दिल को इतना विस्तृत कर लीजिये कि यह जिंदगी के शरीर तक व्यापक हो जाय। क्योंकि जीवन और मृत्यु एक ही हैं, ठीक वैसे ही जैसे नदी और सागर एक हैं।”
– खलील जिब्रान

 

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