Last Updated on August 1, 2023 by Jivansutra
Motivational Story for Students to Work Hard in Hindi
– स्वामी विवेकानंद
गुरुकुल में आज विद्यार्थियों का सैलाब उमड़ा हुआ था, क्योंकि परीक्षा का परिणाम घोषित होने वाला था। कई छात्र प्रसन्न थे, तो कई मुँह लटकाये भी खड़े थे। उनकी प्रसन्नता और उदासी अकारण नहीं थी। जो छात्र उत्तीर्ण होते, उन्हें अगली कक्षा में प्रवेश मिलना तय था, परन्तु अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को न केवल गुरुकुल ही छोड़ना पड़ता, बल्कि आचार्यों की भर्त्सना भी सुननी पड़ती।
“क्यों रे मूर्ख! तू फिर अनुत्तीर्ण हो गया। तुझे मैंने समय रहते ही चेताया था कि यदि इस बार उत्तीर्ण न हुआ, तो गुरुकुल से बाहर निकाल दिया जायेगा।” – एक आचार्य एक किशोरवय के विद्यार्थी को डांट रहे थे और वह बेचारा चुपचाप सुन रहा था। डरते-डरते उसने गुरुकुल के प्रधान आचार्य से निवेदन किया, “आचार्यदेव! मैंने अपनी ओर से पूर्ण प्रयास किया था।”
“परन्तु निर्बल स्मरण शक्ति के कारण मै जो कुछ भी याद करता हूँ, उसे थोड़ी देर बाद ही भूल जाता हूँ। कृपया मुझे एक अवसर और देने की कृपा करें।” “यदि तुझे कुछ स्मरण ही नहीं रहता, तो फिर तू कैसे उत्तीर्ण हो पायेगा और तेरे विद्याध्ययन करने का भी क्या लाभ होगा? यदि देवता भी तुझ पर कृपा करें, तो भी तुझ जैसे जड़बुद्धि को उत्तीर्ण नही करा सकते।”
आचार्य ने इन तीव्र शब्दों ने वरदराज की भर्त्सना करते हुए उसे बाहर निकल जाने को कहा। कक्षा के सभी छात्र उस पर हँसने लगे। वह बेचारा भी अपना मुँह लटकाये बोझिल क़दमों से वहाँ से निकल गया। अनेकों प्रश्न उसके मन में उथल-पुथल मचाये हुए थे। कैसे वह अपने घर लौटेगा? माता-पिता को जाकर क्या उत्तर देगा?
जब लोगों को पता चलेगा कि उसे गुरुकुल से निकाल दिया गया है, तब कैसे वह उनका सामना कर पायेगा? वरदराज का ह्रदय बैठा जा रहा था। आखिर उसने अपनी ओर से तो भरसक प्रयत्न किया था। रात-रात भर बैठकर अध्ययन किया, लेकिन यदि फिर भी उत्तीर्ण न हो सका, तो वह क्या कर सकता था। सवालों के भँवर में फंसा वह अब अपने गाँव के पास ही आ पहुँचा था।
पर चूँकि धूप बहुत तेज हो चली थी, इसलिये उसने थोडा विश्राम करने का निश्चय किया। जेठ की इस तपती दोपहर में, सूरज की तेज रौशनी सबको संतप्त कर रही थी, पर यहाँ भूख भी उसे बेहाल किए हुए थी। इसलिये पास के कुँए की जगत पर बैठकर ही उसने सत्तू खाने का निश्चय किया, जिसे वह गुरुकुल से लेकर चला था। कुँए पर कई लोग खड़े थे।
प्यास के मारे सब बेहाल थे। इसलिये बार-बार डेंगची कुँए में डालते और शीतल जल निकालकर पीते। रस्सी के बार-बार रगड़ने से कुँए के किनारे लगा पत्थर भी घिसने लग गया था। लोग जितना पानी निकालते, पत्थर उतना ही घिसता जाता। वरदराज चुपचाप बैठा यह सब देख रहा था। अचानक ही उसके मन में एक विचार कौंधा।
वह सोचने लगा, “यदि केवल जूट की बनी एक रस्सी से कठोर पत्थर घिस सकता है, तो यदि मै परिश्रम करूँ तो क्या सफल नहीं हो सकता? आखिर दिमाग पत्थर से ज्यादा कठोर तो होता नहीं। वरदराज के मन में आशा की ज्योति जगमगा उठी। वह उठ खड़ा हुआ और तुरंत ही उसने निश्चय किया कि वह वापस गुरुकुल लौट जायेगा और फिर से अध्ययन आरम्भ करेगा।
वह घर के समीप आ गया था, पर घर न जाकर वापस गुरुकुल लौट आया। उसके साथी उसे देखकर आश्चर्यचकित थे। उसकी बात सुनकर आचार्य ने पहले तो उसे बहुत झिड़का, पर फिर उसकी बहुत अनुनय-विनय से द्रवित होकर उसे पुनः प्रवेश दे दिया। अब वरदराज ने अध्ययन में रात-दिन एक कर दिया और जब परीक्षा का परिणाम आया तो सम्पूर्ण गुरुकुल स्तब्ध था।
वरदराज न केवल उत्तीर्ण हुआ था, बल्कि उसने संपूर्ण विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। एक समय जडमूर्ख समझा जाने वाला यह बालक आगे चलकर संस्कृत का बहुत बड़ा विद्वान् बना। उसने कई अद्वितीय ग्रंथों की रचना की। छात्र उसका शिष्य बनना गौरव की बात समझते। पर यह सब किसी जादू से संभव नहीं हुआ था। यह आश्चर्यजनक परिणाम उपजा था, संकल्प की अमोघ शक्ति से।
कठोर परिश्रम के, प्रबल इच्छाशक्ति के बल पर ही यह असंभव संभव हुआ था। कामयाब लोग गलत नहीं कहते, निश्चय ही संकल्प सफलता का प्रथम सूत्र है। ऐसा अचूक अस्त्र है जो कभी खाली नहीं जाता। यदि हम भी किसी कार्य को करने का संकल्प कर लें, तो ऐसा कौन सा अवरोध है जो उसके मार्ग में चट्टान बनकर खड़ा हो जाय। निःसंदेह कुछ भी नहीं!
– टॉमी लसोरडा
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