Last Updated on January 26, 2021 by Jivansutra
Famous Life Changing Story in Hindi
– अल्बर्ट आइंस्टीन
यह उस समय की बात है जब भारत के महान सपूतों में से एक स्वामी रामतीर्थ व्यवहारिक वेदांत के प्रचार हेतु अमेरिका आये हुए थे। वहाँ वे सेन-फ्रांसिस्को शहर में एक अमेरिकन शिष्य के परिवार के पास ठहरे थे। उनकी दिव्य ओजस्वी वाणी सुनकर अनेकों अमेरिकन परिवार उनके शिष्य बन गये। एक दिन उस परिवार की एक स्त्री अपनी एक महिला मित्र को उनके पास लेकर आयी।उस स्त्री के पुत्र का अभी हाल में देहांत हो गया था और वह उसके शोक के कारण हर समय दुखी रहती थी। स्वामी जी की अमेरिकन शिष्या के मुख से यह सुनकर कि भारत से एक योगी आये हैं और वे सभी दुखों का निवारण करने में समर्थ हैं, वह श्वेत महिला अपने दुःख की निवृत्ति का साधन जानने उनके पास पहुंची थी। स्वामी जी को देखते ही उसने घोर विलाप करना आरम्भ कर दिया।
रोते-रोते भी वह स्वामीजी से बस यही कहे जा रही थी कि वे बस उसे किसी भी तरह से उसका बच्चा वापस दिला दें। वह उसके बिना किसी भी तरह से नहीं जी सकती। स्वामीजी ने बड़े प्रेम से उस स्त्री से कहा, “माता, उठो! शोक मत करो। मै तुम्हे तुम्हारा बच्चा वापस दिला दूँगा और तुम्हारे जीवन पर छाये इन दुखों के काले बादलों को भी दूर करूँगा।
पर क्या तुम इसकी कीमत चुकाने को तैयार हो?” वह स्त्री बहुत धनी परिवार की थी, इसलिये स्वामी जी की बातों से उसे ऐसा लगा जैसे अब तो निःसंदेह उसके मन की मुराद पूरी हो ही जायेगी, क्योंकि धन से उसका तात्पर्य केवल लौकिक धन से था। उस स्त्री ने रुँधे कंठ से कहा, “हाँ स्वामीजी मै इसके लिये बड़ी से बड़ी कीमत चुकाने को भी तैयार हूँ।
आप जितना धन माँगेगे, मै उतना धन दे दूँगी।” स्वामी रामतीर्थ हँसते हुए बोले, “नहीं माता! राम के दिव्य आनंद के साम्राज्य में इस दौलत की कोई कीमत नहीं है। तुम्हे इससे भी बड़ी कीमत चुकानी होगी।” वह स्त्री स्वामी रामतीर्थ की बातें सुनकर उन्हें आश्चर्य से देखने लगी। वह सोच रही थी कि पैसे से भी बड़ी दौलत आखिर क्या हो सकती है?
पर उस बेचारी को कहाँ कुछ पता था कि स्वामीजी का मंतव्य क्या था? वह तो बस किसी भी मूल्य पर अपनी संतान को पाना चाहती थी। उसने स्वामीजी से कहा, “स्वामी जी! मै हर कीमत चुकाने को तैयार हूँ।” तब स्वामीजी बोले, “तो फिर राम के राज्य में आनन्द का अभाव ही कहाँ है? मै कल तुम्हारे घर पर आऊँगा और तुम्हे तुम्हारा पुत्र लौटाऊँगा।
वह स्त्री अत्यंत प्रसन्न हो गयी और स्वामीजी के चरणों में प्रणाम कर अपने घर चली गई। अगले दिन स्वामी जी एक अनाथ नीग्रो(हब्शी) बालक को, जो उस स्त्री के पुत्र की ही आयु का था, अपने साथ लेकर उस स्त्री के घर पहुँचे। वह स्त्री तो न जाने कब से स्वामीजी की राह देख रही थी। उसने तुरंत दरवाजा खोला और स्वामी जी को प्रणाम किया।
उन्होंने उस श्वेत अमेरिकन महिला से कहा, “लो माता! यह रहा तुम्हारा पुत्र। अब तुम अपने ह्रदय का समस्त स्नेह इस बालक पर उडेलना।” स्वामीजी की बातें सुनकर वह स्त्री सन्न रह गयी। अचकचाते हुए बोली, “स्वामीजी! भला यह कैसे संभव है? एक काला नीग्रो मेरा पुत्र कैसे हो सकता है? मै तो इसे अपने घर में भी प्रवेश नहीं करने दे सकती।
कृपया आप मुझे मेरा ही पुत्र वापस लौटाइये।” स्वामीजी बड़े प्रेम से बोले, “माता! कल तो तुम कह रही थी कि आनंद पाने के लिये तुम बड़ी से बडी कीमत चुकाने को भी तैयार हो और आज तुम इस नीग्रो बालक का स्पर्श तक नहीं करना चाहती। यदि तुम इतना भी नहीं कर सकती तो आनंद के दिव्य राज्य में कैसे प्रवेश कर पाओगी?
संकोच छोड़कर इस बालक को अपनाओ। इसे अपना ही पुत्र मानकर इससे प्रेम करो। इसकी सेवा करो और बदले में तुम्हे भी वही मिलेगा। आनंद का वह स्रोत जो सूख गया था, फिर से तुम्हारे जीवन में बहने लग जायेगा।” उस स्त्री को शायद अपनी भूल समझ में आ गयी थी। उसने उस बालक को अपने सीने से चिपटा लिया।
स्वामी जी की इस करुणा ने दो प्राणियों के जीवन को नष्ट होने से बचा लिया। न केवल उन्होंने उस अनाथ बालक के लिये एक ममतामयी माँ की खोज की, बल्कि उस श्वेत स्त्री के मन में जड़ जमाकर बैठी उच्चता और कुलीनता के अहं की ग्रंथि भी नष्ट कर दी। उसका श्रेष्ठ होने का संपूर्ण गर्व एक झटके में तिरोहित हो गया।
– अज्ञात
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