Last Updated on November 1, 2018 by Jivansutra
Famous Hindi Story of Saint Kabir and A Rich Man
– विलियम वर्ड्सवर्थ
संत कबीरदास मध्यकाल के एक प्रमुख संत हुए हैं जिनकी सत्यनिष्ठ आचरण से पूर्ण शिक्षाओं ने, भारतीय जनमानस का लंबे समय तक मार्गदर्शन किया है। अपनी जीविका चलाने के साथ-साथ संत कबीर नियमित रूप से सत्संग भी करते थे जिसमे गरीब श्रमिक वर्ग के साथ-साथ कुलीन धनाढय लोगों की भी भागीदारी होती थी। उन दिनों नगर में एक सेठ की दानशीलता, बड़प्पन, और वैभव की बड़ी चर्चा थी। सत्संग में आने वाले लोग भी, अक्सर आपस में उसकी चर्चा किया करते थे।
एक दिन कबीरदास जी का एक शिष्य उनके सामने उस व्यक्ति की बड़ाई करते हुए कहने लगा कि कैसे उसने अनेकों धर्मशालाएं बनवाई हैं और कैसे वह धर्मस्थान पर जाकर जरुरतमंदों को दान देता है। उसकी परोपकारी प्रवृत्ति के बारे में बात करते हुए उसने कहा – “गुरूजी, निश्चय ही वह सेठ यहाँ का सबसे बड़ा धनपति है। सभी लोगों का यह मानना है कि नगर में उससे बड़ा व्यक्ति कोई नहीं है।”
संत कबीर ने अपने शिष्य से कहा – “नहीं बेटा! वह व्यक्ति केवल अपने वैभव का प्रदर्शन कर रहा है। उसकी वास्तविक इच्छा लोगों की सेवा करने की नहीं, बल्कि यश और प्रतिष्ठा पाने की है। इस नगर में उससे भी बड़े कई व्यक्ति मौजूद हैं। जब शिष्य ने कबीरदास जी से असहमति जताई, तो उन्होंने सहज भाव से कहा – “तो चलो परीक्षा करके देख लो।” अगले दिन कबीरजी वेश बदलकर अपने शिष्य को साथ लेकर नगर की ओर चल पड़े।
पहले वह एक गरीब बढई के घर गये जो कभी-कभी उनके सत्संग में आ जाया करता था। चूँकि उन्होंने वेश बदला हुआ था, अतः वह बढई उन्हें पहचान न सका। उन्होंने उससे भोजन की याचना की। वह व्यक्ति शुद्ध ह्रदय का था और अतिथिधर्म की महत्ता को जानता था। उसने अपना कार्य छोड़कर उनका स्वागत-सत्कार किया और प्रेमपूर्वक अपनी सामर्थ्यनुसार भोजन खिलाकर विदा किया। इसके पश्चात वह सेठ की हवेली पहुँचे। अब तक दोपहर हो चली थी। डयोढ़ी पर पहुँचने पर दरबानों ने उन्हें रोक दिया।
जब उन्होंने सेठजी से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो दरबान उनकी साधारण वेशभूषा देखकर उन्हें वहाँ से हटाने लगे। लेकिन जब कबीर नहीं माने तो उन्होंने सेठ को सूचना दी। सेठ उस समय आराम कर रहा था। नौकरों के विघ्न डालने पर उसे बड़ा क्रोध आया। जब उन्होंने उसे दो भिखारियों के आने की सूचना दी तो वह उन्हें फटकारने के उद्देश्य से बाहर आ गया। पर वहाँ चलते राहगीरों को देखकर उसने स्वयं को संयत कर लिया।
कबीरजी ने सेठ को देखकर अन्न और धन की याचना की। सेठ ने उपेक्षा के भाव से उत्तर दिया – “देखो यह समय हमारे आराम करने का है। तुम लोग परसों शहर के बड़े मंदिर में चले आना, मै सब व्यवस्था कर दूँगा।” यह कहकर वह मंद-मंद शब्दों में उन्हें दुर्वचन कहता हुआ घर के भीतर चला गया। शिष्य सेठ का यह व्यवहार देखकर अवाक रह गया। तब कबीरदासजी ने शिष्य को बोध कराने के उद्देश्य से यह उक्ति कही –
बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
शिष्य ने उनकी इस साखी का आशय समझकर लज्जा से नजरें नीची कर लीं। इस दोहे के जरिये संत कबीरदास ने बहुत ही सुंदर शब्दों में व्यक्ति की श्रेष्ठता और महानता की कसौटी निर्धारित कर दी है। जैसे खजूर के बड़े और फलयुक्त होने के बावजूद वह पथिक को छाया और फल नहीं दे सकता है। ठीक उसी तरह उस व्यक्ति के बड़े होने का क्या लाभ है जो कुलीन और संपन्न होने के बावजूद अभावग्रस्त लोगों को सम्मान और आवश्यक मदद नहीं दे सकता है।
– विंस्टन चर्चिल
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