Last Updated on October 4, 2024 by Jivansutra
A Great Story in Hindi on Charity
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
प्रौढ़ आयु के एक व्यक्ति सड़क पर चुपचाप चले जा रहे थे। श्वेत धोती-कुरता पहने इन सज्जन के मुख पर सादगी की आभा थी। उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि ये किसी संभ्रांत परिवार के हैं, पर ये अपने प्रान्त के सर्वमान्य विद्वान और प्रसिद्द व्यक्ति थे। जिस मार्ग पर ये सज्जन जा रहे थे, उसी रास्ते पर आगे एक 12-13 वर्ष का बालक सभी आने-जाने वालों से भिक्षा मांग रहा था।
जब वे सज्जन उसके निकट से होकर गुजरे, तो उसने उनसे भी भीख में एक पैसा माँगा। उन सज्जन को उस कम आयु के बालक को देखकर बड़ी दया आयी। उन्होंने बड़े प्रेम से बालक से पूछा, “बेटे! तुम इस तरह भीख क्यों मांगते हो?” “गुजारा करने के लिये और अपनी बीमार माँ का इलाज कराने के लिये बाबूजी!” – बालक ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
“अच्छा, यदि मै तुम्हे दस पैसे दे दूँ, तो तुम क्या करोगे?” उन्होंने उस बालक से पूछा। “फिर मै अपने लिये भोजन की व्यवस्था करूँगा” – बालक ने उत्तर दिया। उन सज्जन ने फिर पूछा, “अच्छा यदि मै तुम्हे एक रूपया दे दूँ, तो क्या करोगे? “बाबूजी, फिर मैं अपनी बीमार माँ के लिये दवाइयाँ ले आऊंगा” – बालक बोला।
वह सज्जन, बालक की विनय, उसके निश्चय और सत्यशीलता से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने सोचा कि बालक में बुद्धिमत्ता तो है ही, साथ ही उद्देश्य के प्रति निश्चितता और समर्पण भी है। यदि इसे आवश्यक मदद मिल सके तो यह जीवन में एक सफल व्यक्ति जरूर बनेगा। बालक की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्होंने फिर पूछा, “अच्छा यदि मै तुम्हे दस रूपये दे दूँ, तो तुम क्या करोगे?
बालक ने उत्तर दिया – “बाबूजी, फिर मै अपने लिये पुस्तकें खरीदूँगा और विद्यालय जाऊँगा।” उस उदार सज्जन से उसी समय बालक को दस रूपये निकालकर दे दिये और अपने घर का पता उसे देते हुए कहा, “जब भी तुम्हे पैसों की आवश्यकता हो तो मेरे घर चले आना।” बालक ने उनके चरण छुए और दौड़कर अपने घर चला गया।
वे सज्जन भी उसके पीछे-पीछे गये और यह जानकार कि बालक ने सब सत्य ही कहा था, निश्चिंत और प्रसन्न मन होकर अपने गंतव्य पर आगे बढ़ गये। दीन-दुखियों की मदद करने वाला और निर्धन बालकों को समाज की मुख्यधारा में शामिल कराने वाला यह सज्जन और कोई नहीं, बल्कि स्वयं ईश्वरचंद्र विद्यासागर थे।
26 सितम्बर सन 1820 के दिन पैदा हुआ यह महापुरुष भारत का सच्चा सपूत, संस्कृत का प्रकांड पंडित और एक प्रख्यात समाज-सुधारक था। पर वे जितने बड़े विद्वान् थे उससे कहीं ज्यादा एक उदार ह्रदय के स्वामी थे। न जाने कितने लोगों ने उनकी करुणा का लाभ उठाया, न जाने कितने लोगों के जीवन का पुष्प उनकी सहज दया का आश्रय पाकर खिल उठा।
एक निर्धन परिवार से निकल बंगाल का यह गौरव अपने जीवन में न जाने कितने व्यक्तियों की आशा का दीपक बना। बाल विवाह, बहु-विवाह और वृद्ध विवाह जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ एक सफल आन्दोलन छेड़कर नारी जाति की अस्मिता की सुरक्षा करने वाले इस महापुरुष ने निर्धन और असहाय बालकों को समाज की मुख्यधारा में ला खड़ाकर शिक्षा के क्षेत्र में भी अतुलनीय कार्य किया।
अपने आदर्शों से समझौता न करके इस महापुरुष ने जहाँ अपने जीवन मूल्यों के प्रति अनन्य निष्ठा का परिचय दिया, वहीँ अंग्रेजों की पाश्चात्य शिक्षा प्रदान करने की बाध्यकारी नीति के बावजूद संस्कृत भाषा को उसका खोया गौरव दिलाने की भी भरपूर चेष्टा की।
अपने जीवनकाल में उन्होंने हजारों निर्धन छात्रों को सामयिक सहायता देकर स्वावलंबी बनने में मदद की। उनकी यह सदाशयता, उदारता और एक निःस्वार्थ लोकसेवक का गुण इस कहानी के माध्यम से भी प्रकट होता है।
– हजारीप्रसाद दिवेदी
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