Last Updated on September 22, 2022 by Jivansutra
Devotional Story in Hindi for Devotees
– संत बासिल
बहुत समय पहले की बात है। किसी स्थान पर एक महात्मा पर्णकुटी बनाकर निवास करते थे। महात्मा बहुत शीलवान, परम दयालु और निस्प्रही थे। जहाँ एक ओर वे एकांत में एकाग्रचित्त होकर ईश्वर का ध्यान करते थे, तो वहीँ दूसरी ओर अपने पास आने वाले दुखी लोगों के दुःख का निराकरण भी अवश्य करते। उनके सदगुणों, और सेवा कार्य से भगवान बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने वरदान देने के लिये एक देवदूत को धरती पर उनके पास भेजा।
महात्मा ने देवदूत का ह्रदय से सत्कार किया और उनसे उनके आने का कारण पूछा। देवदूत ने उनसे कहा, “महात्मन, ईश्वर आपकी भक्ति और सेवा कार्य से बहुत प्रसन्न हैं, इसीलिए वे आपको वरदान में कोई दिव्य शक्ति देना चाहते हैं।” उन्होंने मुझे आपके पास यह पूछने के लिये भेजा है कि क्या आप लोगों को रोगमुक्त करने की शक्ति प्राप्त करना चाहेंगे?
महात्मा ने विनम्रता से उत्तर दिया, “हे देव, भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं, यही मेरे लिये सबसे बड़ा वरदान हैं, मुझे कोई शक्ति नहीं चाहिये। मै परमेश्वर के विधान में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहता।” जब महात्मा ने रोगमुक्त करने की शक्ति लेने से मना कर दिया, तो देवदूत ने उनसे कहा, “तो आप दुष्टों को सदमार्ग पर लाने की शक्ति ग्रहण करें।”
महात्मा ने पुनः यह कहकर विनम्रता से शक्ति लेने से मना कर दिया कि पापियों को सदमार्ग पर लाना आप जैसे देवदूतों का काम है। देवदूत बड़े आश्चर्य में पड गये। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि महात्मा ने इन शक्तियों को लेने से मना कर दिया था। वे उनकी भक्ति भावना और अनासक्ति से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने महात्मा से कहा, “हे महात्मन, आपने तो मुझे बड़े संकट में डाल दिया है।
ईश्वर की आज्ञानुसार मै आपको कोई शक्ति दिये बिना वापस स्वर्ग नहीं लौट सकता। कृपया आप कोई न कोई शक्ति अवश्य स्वीकार कीजिये।” महात्मा कुछ देर तक विचारमग्न रहे, फिर उन्होंने देवदूत से कहा, “ठीक है, अगर आप मुझे शक्ति देना ही चाहते हैं तो यह वरदान दीजिये कि भगवान मुझसे जो भी शुभ कर्म करवाना चाहते हैं वे होते चले जाँय।”
मै जहाँ से भी गुजरूँ वहीँ पर लोग रोगमुक्त होते चले जाँय। देवदूत ने कहा, ऐसा ही हो और उसने महात्मा की परछाई को रोगमुक्त करने की शक्ति से संपन्न कर दिया। फिर वह चला गया। इधर महात्मा जहाँ कहीं भी जाते, वहीँ लोग स्वस्थ होते चले जाते। न तो महात्मा को और न ही लोगों को कभी यह पता चल पाया कि कैसे उनके कष्ट दूर हो गये?
महात्मा को कभी इसका बोध नही हो पाया कि वह ईश्वर के कितने करीब थे! सेवा तभी सच्ची कहलाती है जब सेवा करने वाले मनुष्य के मन में जरा भी अभिमान न रहे। एक मशहूर कहावत है कि “जब दान दिया जाय तो उसे इस तरह दिया जाय कि दूसरे हाथ को भी पता न चले।” अभिमान रहते सेवा संभव नहीं है।
जो सेवा के बदले नाम की चाह रखता है वह कभी भी सेवा नहीं कर सकेगा, क्योंकि कृतज्ञता का गुण प्रत्येक मनुष्य में नहीं होता और प्रशंसा न मिलने पर वह सेवा कार्य छोड़ बैठेगा। याद रखिये, सहानुभूति, दया और उदारता के बिना कोई सेवा संभव नहीं।
– महात्मा गांधी
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