Last Updated on October 31, 2018 by Jivansutra

 

Buddha Story in Hindi on Pain and Grief

 

“जीवन क्षणभंगुर है,संसार भी नष्ट हो जाता है, यह जानकार जो बोधपूर्वक जीता है उसके सारे दुःख तिरोहित हो जाते हैं।”
– विनोबा भावे

 

Buddha Story in Hindi on Pain
सुख देह के लिए हितकर है, पर आत्मा की शक्तियाँ केवल दुख मे पनपती हैं

श्रावस्ती की राजमाता विशाखा अपने एकमात्र पौत्र की मृत्यु से विक्षिप्त सी हो गयी थी। राजमहल रात-दिन उसके करुण क्रंदन से गूँजता रहता। वैसे तो राजपरिवार के सभी सदस्यों को इस घटना से ह्रदय-विदारक दुःख पहुँचा था, क्योंकि मृत बालक अत्यंत सुन्दर, सुशील और सबका प्यारा था, लेकिन विशाखा पर तो जैसे वज्रपात ही हो गया था।

दुःख के आवेग से उसकी सोचने-समझने की शक्ति बिलकुल समाप्त हो गयी थी। उसे अक्सर ही श्रावस्ती के राजमार्गों पर भटकते देखा जा सकता था। लोगों ने उसे बहुत समझाया, पर दुःख के इस बोझ को उसने अपने सीने से नीचे उतारना स्वीकार न किया। एक दिन, भगवान बुद्ध के पावन चरण श्रावस्ती में पड़े।

बहुत लम्बे समय के पश्चात भगवान को देखकर, श्रावस्ती में आनंद उमड़ पड़ा था। हर कोई अपने प्रिय प्रभु के दर्शन को उमड़ा चला आ रहा था। स्वयं श्रावस्ती नरेश सहित राजमहल के सभी सदस्य भगवान के प्रति अनन्य श्रद्धाभाव रखते थे, इसलिये वे भी प्रभु के दर्शनों को पहुँचे। भगवान ने सभी का सत्कार किया और सभी पर अपने ज्ञानामृत की वर्षा की।

विशाखा को भी भगवान के आने का पता चला। एक अज्ञात प्रेरणा से वह भी वहीँ चली, जहाँ भगवान ठहरे हुए थे। उस दिन समस्त जनसमुदाय विशाखा को वहाँ आम्रकुंज में आया देखकर आश्चर्यचकित हो उठा था। उसकी संपूर्ण देह और केश भीगे हुए थे। दारुण शोक की व्यथा उसके संपूर्ण अस्तित्व से प्रकट हो रही थी।

आते ही वह भगवान् के चरण पकड़कर रोने लगी। शायद इतने दिनों बाद वह आज ही खुलकर रोई थी। भगवान ने एक प्रेमपूर्ण दृष्टि उसके ऊपर डाली और कहा – “विशाखा, यह कैसी दशा बना ली है तुमने अपनी! क्या इतना अधिक शोक करना उचित है?”विशाखा ने व्यथित स्वर में उत्तर दिया – “भगवन! मेरे एकमात्र पौत्र की मृत्यु हो गई है।

उसी के शोक के कारण मेरी ऐसी दशा हो गयी है। क्या किसी की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करना भी उचित नहीं है?” भगवान् बुद्ध मोह-ममता से उपजी उसकी मानसिक विकृति के विषय में समझ गये। वे उसे बोध कराने के उद्देश्य से बोले – “किसी की मृत्यु पर सामयिक शोक प्रकट करना आचार और सभ्यता की श्रेणी में आता है, लेकिन दुःख को ह्रदय से लगाकर बैठ जाना बुद्धिमानों की नीति नहीं है।

यह अत्यंत मूढ़ता का परिचायक है। अच्छा चलो! यह बताओ कि श्रावस्ती में प्रतिदिन कितने स्त्री-पुरुष मरते होंगे।। विशाखा बोली -“भगवन! मै कोई निश्चित संख्या तो नहीं बता सकती, लेकिन प्रतिदिन कुछ व्यक्ति तो अवश्य मरते होंगे। फिर भगवान ने कहा – “अच्छा, श्रावस्ती में जितने लोग निवास करते हैं, क्या उन सभी में तुम्हारा आत्मीय भाव है?”

हाँ प्रभु! – वह बोली।
और उनके पुत्र और पौत्रों के प्रति?
उन सभी से भी मै पुत्रवत प्रेम करती हूँ।

इसका अर्थ यह हुआ कि प्रतिदिन कुछ व्यक्ति तो अवश्य ही यमलोक पहुँचते होंगे और उनसे स्नेह सम्बन्ध होने के कारण तुम्हे भी अवश्य दुःख होगा। तब विशाखा यह बताओ कि प्रतिदिन क्या तुम उसी अवस्था में रह सकती हो?
नहीं भगवन!

जब तुम इस बिना उपाय वाले विषय में कुछ नहीं कर सकती, तो फिर इससे उदासीन क्यों नहीं हो जाती। अपने भविष्य को अपरिवर्तनीय अतीत की चिंता में मत नष्ट करो। यह निश्चित रूप से जान लो, स्नेह-संबंधों में स्वयं को जकड़ने वाले के लिये दुखों से बचना असंभव है। जिसके केवल एक ही पुत्र है, उसे एक का ही दुःख होगा और जिसके सौ सम्बन्धी है उसे सौ दुःख होंगे।

लेकिन जिसका कोई सगा-सम्बन्धी नहीं है, जो इस दुनिया में अकेला है, उसके लिये दूसरे से शोक प्राप्त करने का अवसर कभी नहीं आयेगा इसलिये यदि जीवन में सुखी रहना चाहती हो, तो इसका एकमात्र उपाय यही है, कभी किसी से कोई सम्बन्ध मत रखना। कभी किसी को अपना प्रिय मत मानना और न ही किसी के प्रति लगाव रखना।

वास्तव में चीज़ों के प्रति मोह-ममता ही, दुखों की असली जड़ है। जब तक हम इनसे अपने मनोकल्पित सम्बन्ध नहीं तोड़ लेते, तब तक हम सुखों के पीछे भागते तो रहेंगे, पर कभी उन्हें हासिल नहीं कर पायेंगे। अनासक्ति ही इस मृत्युलोक में आनंद का एकमात्र उपाय है।

“जिसे सदैव प्रसन्न रहने की आकांक्षा है, उसे प्रत्येक वस्तु से अपना सम्बन्ध तोड़ लेना चाहिये।”
– महात्मा बुद्ध

 

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