Last Updated on June 2, 2019 by Jivansutra
Motivational Story in Hindi on Justice of Pure Heart
बरसों पुरानी बात है, उज्जैन के समीप एक गाँव में किशोरवय के कुछ बालक अपने जानवर चरा रहे थे। इधर बालक खेल में व्यस्त थे और उधर जानवर घास चरते-चरते जंगल में दूर निकल गये। बालक भी उन्हें ढूंढते-ढूंढते उनके पीछे चल दिये। आगे एक बहुत विस्तृत मैदान था जो ताज़ी हरी घास से भरा हुआ था। वहाँ जाकर सारे पशु घास चरने में व्यस्त हो गये और बालक भी उन्ही के पास खेलने लगे।
खेलते-खेलते उनमे से एक बालक की नजर, मैदान के दूसरी तरफ खड़े एक विशाल खंडहर पर पड़ी। वह खंडहर घास-फूस और लताओं से पूरी तरह ढका हुआ था, इसलिये ध्यान से न देखने पर एक विशाल टीला ही मालूम पड़ता था। सभी बालक उत्सुकतावश उसकी ओर चल दिये। खंडहर पर उगी घास और बेलों को हटाकर जब वे उसके अन्दर पहुँचे, तो सभी बालक उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गये।
अपनी नक्काशी, विशालता और कलाकृतियों के कारण वह खंडहर सदियों पुराने किसी राजा के महल जैसा प्रतीत होता था। उस वीरान महल के बीचों-बीच कुछ पथरीले टीले उभरे हुए थे, जिन पर घास उग आयी थी और उनका वास्तविक स्वरुप छिप गया था। इन सभी टीलों के बीच में एक विशाल टीला और था, जो बाकी दूसरे टीलों से अधिक विशाल और ऊँचा था।
Motivational Hindi Story on Justice
उन बालकों ने इन टीलों को ही अपने खेल का माध्यम बनाया और आपस में ही एक झूठा झगडा प्रस्तुत कर उसका सही निर्णय करने के लिये अपने बीच में से ही एक बालक को राजा घोषित कर दिया। वह बालक जो दूसरे बालकों से आयु में सबसे छोटा था, उनके निर्देशानुसार उस टीले पर बैठ गया जो सबके मध्य में था और सबसे विशाल तथा ऊँचा था।
दूसरे बालक भी दो पक्ष बनाकर दोनों ओर बने टीलों पर बैठ गये और उस राजा बने बालक के निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे। इधर वह बालक जो राजा बनकर सबसे ऊँचे टीले पर बैठा था, उसमे अदभुत परिवर्तन हो गया। जहाँ अभी तक वह दूसरे बालकों की तरह हँसी-ठिठोली कर रहा था, अब बिल्कुल शांत और गंभीर हो गया था।
उसकी वाणी में ओज और प्रभुत्व झलकने लगा था। देखते ही देखते उसने उन बालकों के बीच के झगडे का निपटारा कर दिया। उसके व्यक्तित्व में हुए इस अदभुत परिवर्तन से और उसकी निर्णय क्षमता से सारे बालक हक्क-बक्के रह गये। उन्होंने उसके निर्णय को स्वीकार किया और फिर अपने-अपने घर चले गये। अब वे प्रतिदिन यही खेल खेलते।
न्याय पर दिल छू लेने वाली प्रेरक कहानी
वे एक झूठा स्वांग रचते, और वही किशोर राजा बनकर उनके विवाद का निपटारा करता। उस बालक की अदभुत न्याय क्षमता की चर्चा धीरे-धीरे सारे गाँव में फ़ैल गयी। अब दूसरे लोग भी अपने-अपने वास्तविक विवादों को उसके सामने लाते और उसके दिये निर्णय से प्रसन्नमन होकर लौटते। वह जो भी निर्णय देता, दोनों ही पक्ष उसे सहजता से स्वीकार कर लेते।
इस विचित्र घटनाक्रम में अदभुत विशेषता यह थी कि जैसे ही वह बालक उस ऊँचे टीले पर बैठता, उसके व्यक्तित्व और वाणी में गंभीरता और ओजस्विता छा जाती। उसकी बातों से ऐसे लगता जैसे कि वह कोई बालक नहीं, बल्कि कोई अत्यंत बुद्धिमान, विद्वान व्यक्ति हो। उसकी वाणी में एक राजा के प्रभुत्व की झलक होती।
पर जैसे ही वह उस टीले से नीचे उतरता, ये सभी गुण लुप्त हो जाते और वह अपनी आयु के दूसरे बालकों की ही तरह चंचल और अल्हड हो जाता। उस स्थिति में देखकर कोई उसे यह नहीं कह सकता था कि इसी बालक ने अभी-अभी सर्वमान्य और अत्यंत विद्वत्तापूर्ण निर्णय दिया है। अब वह बालक अनजान न रह गया। दूर-दूर के प्रदेशों से लोग अपने विवाद उसके पास लाने लगे।
Hindi Motivational Story on King Vikramaditya
उसकी बढती ख्याति, उज्जैन के राजा के कानों में भी पहुंची। एक साधारण बालक के अन्दर ऐसी अदभुत न्याय क्षमता और प्रखर विवेक देखकर राजा के मन में संदेह उठा कि हो न हो निश्चित ही वह स्थान महाराज विक्रमादित्य का राजदरबार ही है और जिस टीले पर बैठकर वह लड़का न्याय करता है, वह महाराज विक्रमादित्य का न्याय सिंहासन है।
राजा के मन में विचार उठा कि यदि मै किसी तरह उस राजसिंहासन को प्राप्त कर लूँ और उस पर बैठकर न्याय करूँ, तो मै भी विक्रमादित्य की ही तरह प्रसिद्द और न्यायप्रिय समझा जाउँगा। राजा अपने मंत्री और सेना को लेकर उस स्थान पर गया, जहाँ वह खंडहर था और उसने जाते ही उस स्थान को खुदवाना शुरू कर दिया।
कई दिनों की खुदाई के पश्चात आख़िरकार राजा को वह हासिल हो ही गया जिसकी उसे तलाश थी। जिस टीले पर बैठकर वह लड़का न्याय करता था, उसके काफी नीचे से राजा को एक रत्नजटित बहुमूल्य सिंहासन मिला जो पाँच पंखों वाले देवदूतों के हाथों पर टिका हुआ था। उस अदभुत राजसिंहासन को देखने के लिये भारी भीड़ उमड़ पड़ी।
विक्रमादित्य के न्याय सिंहासन की प्रेरक कहानी
वह बालक जो उस टीले पर बैठकर न्याय करता था, सिंहासन छीन लेने से इतना दुखी था जैसे उसकी प्राणप्रिय वस्तु छीनी जा रही हो। सारे राज्य में घोषणा करवा दी गयी कि राजा एक शुभ दिन इस सिंहासन पर आरूढ़ होंगे और फिर न्याय करेंगे। आखिर वह दिन भी आ ही गया जिसकी सबको प्रतीक्षा थी। विक्रमादित्य के राजसिंहासन को प्रजा के सामने रखा गया।
पंडितों ने वेदमंत्रों से उसकी पूजा की और विधिपूर्वक उसे प्रतिष्ठित किया। सभी लोगों की नजरें उस अदभुत सिंहासन पर ही लगी हुई थीं। महाराज विक्रमादित्य का वह राजसिंहासन वास्तव में बेजोड़ था। उसमे बहुमूल्य रत्न जड़े थे जिनकी आभा हर किसी का चित्त चुराये ले रही थी और उसे अपने हाथों में थाम रखा था, स्फटिक जैसे निर्मल श्वेत पंखों वाले, संगमरमर के पाँच देवदूतों ने।
राजा बड़ी उत्सुकता से उस सिंहासन की ओर बढा। पर जैसे ही वह उस पर बैठने को था, तभी उनमे से एक देवदूत की मूर्ति के भीतर से आवाज आयी, “ठहरो राजन!, क्या तुम वास्तव में स्वयं को इस सिंहासन पर बैठने योग्य समझते हो? क्या तुमने कभी दूसरे राजाओं के राज्य को छीनने का प्रयास नहीं किया?” राजा के हाँ कहने पर, उस देवदूत ने कहा, “तो जाओ पहले अपनी राज्य लोलुपता को दूर करो, फिर इस सिंहासन पर बैठना।”
Motivational Story in Hindi on Pure Heart
इतना कहकर वह देवदूत आसमान में उड़ गया। राजा निराश होकर लौट आया और अपनी इस बुराई को दूर कर पुनः सिंहासन के पास आया। पर जैसे ही उसने सिंहासन पर बैठना चाहा, उनमे से एक देवदूत की आवाज फिर आयी, “ठहरो राजन!, क्या तुमने कभी दूसरों के धन-संपत्ति को लेने की चेष्टा नहीं की? क्या तुमने दूसरे लोगों के वैभव और सुख को देखकर कभी उनसे ईर्ष्या नहीं की?”
राजा के हाँ कहने पर देवदूत ने कहा, “तो जाओ पहले जाकर अपने लोभ और ईर्ष्या को दूर करो। फिर इस सिंहासन पर बैठना।” इतना कहकर दूसरा देवदूत भी आसमान में उड़ गया। राजा फिर से निराश होकर लौट आया। कुछ ही दिनों में अपने बुरे स्वभाव को दूर कर वह फिर सिंहासन के पास आया।
पर जैसे ही उसने उस पर बैठने का प्रयास किया, तीसरे देवदूत के भीतर से आवाज आयी, “ठहरो राजन!, क्या तुमने कभी दूसरों पर प्रभुत्व ज़माने की चेष्टा नहीं की? क्या तुमने कभी अपने अधिकार का अनुचित प्रयोग नहीं किया?” राजा के हाँ कहने पर देवदूत बोला, ठीक है तो जाओ, पहले अपने अभिमान को दूर करो और इतना कहकर तीसरा देवदूत भी ऊपर उड़ गया।
Motivational Story in Hindi on Pure Heart
कुछ दिन के पश्चात अपने अहंकार को दूर कर राजा फिर सिंहासन के पास आया, पर जैसे ही वह उस पर बैठने को तैयार हुआ, चौथा देवदूत बोला, “रुको राजन!, क्या तुममे निश्चयात्मिका बुद्धि है? क्या तुम्हारे पास निर्मल प्रज्ञा और हंस जैसा विवेक है?”
राजा के नहीं कहने पर चौथा देवदूत भी यह कहकर उड़ गया, “ठीक है तो जाओ, पहले अपने अन्दर प्रज्ञा और विवेक का प्रकाश उत्पन्न करो।” राजा फिर से निराश होकर लौट आया। अब उसे लगने लगा था कि शायद वह इस सिंहासन पर कभी नहीं बैठ सकेगा, क्योंकि वह इस बैठने योग्य नहीं है, परन्तु फिर भी उसने अंतिम प्रयास करते हुए स्वयं को वैसा बना लिया जैसा कि चौथे देवदूत ने उससे कहा था।
आज कई दिनों के पश्चात जब वह सिंहासन पर बैठने जा रहा था, तो उसे पूर्ण विश्वास था कि आज वह निश्चय ही उस विश्वविख्यात न्यायसिंहासन पर बैठ सकेगा। राजा बड़ी आशा से उस सिंहासन पर बैठने को तैयार हुआ ही था कि अचानक ही अंतिम देवदूत बोल उठा, “ठहरो राजन!, क्या तुम्हारा ह्रदय एक बच्चे की तरह निश्चल और शुद्ध है? यदि ऐसा है तो तुम वास्तव में इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हो।”
न्याय करने के लिये पवित्र ह्रदय चाहिये
राजा ने निराश और मंद स्वर में उत्तर दिया – “नहीं मेरा ह्रदय शुद्ध नहीं है।” और राजा के इतना कहते ही वह देवदूत, उस जगतविख्यात न्यायसिंहासन को लेकर आकाश में उड़ गया और इस तरह विक्रमादित्य का राजसिंहासन सदा-सदा के लिये अद्रश्य हो गया। यह घटना कितनी सत्य है और कितनी असत्य यह तो हम नहीं जानते, परन्तु यह उन मूलभूत सूत्रों को अवश्य प्रकट करती है जो न्याय की आत्मा हैं।
जो एक सच्चे न्यायाधिकारी के अन्दर अवश्य होने चाहियें, तथा जिनके बिना निर्दोष न्याय कर पाना संभव नहीं है। केवल तार्किक बुद्धि से या कानून की धाराएँ रट लेने भर से न्याय नहीं हो सकता। जहाँ न्याय से धन की अपेक्षा जुड़ जाय या न्यायकर्ता के भीतर अहंकार जड़ जमा ले, वहाँ निर्दोष न्याय दे पाना संभव नहीं है।
एक सच्चा न्यायाधीश होने के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता है, एक पवित्र और निश्चल ह्रदय की, व्यक्तिगत अहं की सीमाओं से परे जाकर, अपनी आत्मीयता का विस्तार करने की, क्योंकि प्रभुत्व और अधिकार पाने की लालसा और दायित्व की मर्यादा का बोध न होने से चेतना संकुचित होती है और फिर वह प्रखर विवेकशीलता और प्रज्ञा कभी उत्पन्न नहीं हो सकती, जो न्यायकर्ता की सबसे प्रबल शक्ति है।
सच्चे न्यायप्रिय सम्राट थे महाराज विक्रमादित्य
महाराज विक्रमादित्य इतिहास के सबसे प्रसिद्द न्यायी राजाओं में से एक हुए हैं। उनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने कभी किसी निर्दोष को दंड नहीं दिया और अपराधी कभी बिना दंड पाए न रह सका। उनकी विलक्षण न्याय क्षमता और तेज को देखकर अपराधी उनके सामने आते ही थर-थर कांपने लगते थे। उनके शासनकाल में प्रजा बहुत सुखी थी।
कहीं भी अपराध का नामो-निशान न था, क्योंकि राज्य की दंड व्यवस्था अत्यंत कठोर और त्वरित थी, जिस पर स्वयं महाराज विक्रमादित्य का नियंत्रण था। क्या आज भी हमें राजा हरिश्चंद्र, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और विक्रमादित्य जैसे सच्चे न्यायकर्ताओं की आवश्यकता नहीं है, जो जीवन में न्याय को सर्वप्रथम रख सके? जो उसकी सनातन मर्यादा को अक्षुण्ण रख सकें? निःसंदेह आज संसार को ऐसे ही आदर्श न्यायकर्ताओं की आवश्यकता है।
– एलन देर्शोवित्ज़