Last Updated on July 6, 2020 by Jivansutra
Best Hard Work Story in Hindi for Students
– अरविन्द सिंह
कक्षा में एक आचार्य विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे। पढाने के पश्चात उन्होंने प्रत्येक विद्यार्थी को अपने पास बुलाकर उसकी परीक्षा ली, ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि छात्रों ने विषय को ठीक से ग्रहण किया कि नहीं। लगभग सभी छात्रों ने पूछे गये प्रश्नों का सही ढंग से उत्तर दिया। आचार्य अत्यंत प्रसन्न हुए। अब बस केवल एक ही छात्र बाकी रह गया था, जिसके बारे में सबकी मान्यता थी कि वह लापरवाह और मूर्ख है।
आचार्य ने उसकी भी परीक्षा ली, पर बेचारा किसी भी प्रश्न का संतोषजनक उत्तर न दे सका। आचार्य अत्यंत क्रुद्ध हुए। वे छात्र को डांटते हुए पीटने लगे। बालक रोते-रोते बोला – “गुरूजी! मै सत्य कहता हूँ, मै अपना पाठ प्रतिदिन नियमपूर्वक पढता हूँ और एकाग्रता से याद करने की कोशिश करता हूँ, परन्तु फिर भी मुझे कुछ याद नहीं रहता।” आचार्य ने उसकी बात सुनी और उसकी हथेली पकड़कर कुछ देखने लगे।
हाथ देखने के बाद वह बोले – “अरे, तेरे हाथ में तो विद्या की रेखा ही नहीं है। तेरे पढने का कोई लाभ नहीं है। जा यहाँ से निकल जा। तू तो जिंदगी भर मूर्ख ही रह जायेगा।” बालक उदास हो गया और मन मनोसकर अपने घर चला आया। अब हर समय वह अपनी हथेली को देखता रहता और रोता रहता। सोचता! कि क्या मै अब कभी विद्वान् नहीं बन सकूँगा।
शायद गुरूजी ठीक कहते हैं, क्योंकि मेरे हाथ में बुद्धि की रेखा नहीं है, इसीलिए मै जो कुछ भी याद रखने की कोशिश करता हूँ, उसे थोड़ी देर बाद ही भूल जाता हूँ। लेकिन यदि रेखा मेरे हाथ में नहीं है, तो क्या मै इसे खुद नहीं बना सकता। पनु के मन में आशा की एक किरण जगमगा उठी। तुरंत ही उसने घर में ढूँढना शुरू किया और थोड़ी ही देर में उसे एक नुकीला चाक़ू मिल गया।
उसने चाकू उठाया और उससे अपने हाथ पर लकीरें बनाने लगा। हाथ से झर-झर खून बहता जा रहा था, उसके मुख पर दर्द की टीस साफ दिखाई दे रही थी, पर उसने हथेली पर लकीर बनाना न छोड़ा। थोड़ी देर बाद काम समाप्त हो गया। अब पनु प्रसन्न था, क्योंकि विद्या की रेखा अब उसके हाथ में भी थी। अब उसे विद्वान् बनने से कोई नहीं रोक सकता। गुरूजी भी अब उसे कभी नहीं डांटेंगे।
विचारों में मग्न वह अपने हाथ में बनायीं गई रेखाओं को देख ही रहा था कि अचानक ही उसकी माँ आ गयी। जब उसकी माँ ने घर में जगह-जगह पड़े खून के छींटे देखे, तो उसने पनु से पूछा- “अरे! घर में ये खून कहाँ से आ गया?” उसने चहकते हुए जवाब दिया – “माँ, यह खून मेरे ही हाथ से निकला है।” “तू चाकू के साथ क्या कर रहा था?” – माँ ने भयमिश्रित स्वर में पूछा
“माँ, गुरूजी कहते हैं, मेरे हाथ में विद्या की रेखा नहीं है, इसलिये मै कभी विद्वान् नहीं बन सकता, पर आज मैंने स्वयं इस चाकू की मदद से अपने हाथ पर विद्या की लकीर बना दी है। अब मै भी विद्वान् बन सकूँगा माँ! अब आचार्य कक्षा में मुझे कभी नहीं डांटेंगे।” – यह कहकर उसने अपनी हथेली माँ के सामने कर दी। माँ की स्नेहिल आँखे आंसुओं से डबडबा उठी।
उसने अपने बच्चे को सीने से लगा लिया और उसे लेकर सीधे आचार्य के पास चली गई। वहाँ जाकर उसने आचार्य से सारी बात साफ़-साफ कह दी और बच्चे को फिर से प्रवेश देने का आग्रह किया। आचार्य की आँखे भी बालक के इस भीषण कर्म को देखकर भर उठीं। इतनी कम आयु में यह बालक इतना दुस्साहस कर सकता है, इसकी तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।
उन्होंने बालक के दृढ संकल्प को नमन करते हुए उसे कक्षा में फिर से प्रवेश दे दिया। यही बालक आगे चलकर संस्कृत का बड़ा भारी विद्वान पाणिनि बना जिसे आज भी संस्कार व्याकरणशास्त्र के जन्मदाता के रूप में श्रद्धाभाव से याद करता है। यह पाणिनि ही थे जिनके कारण संस्कृत हजार वर्ष तक विद्वानों की भाषा के रूप में संसार भर में प्रसिद्द हुई।
जिनके सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण कर अनेकों छात्र प्रकांड पंडित बनकर लोक में सम्मानित हुए। यह सत्य कथा इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि जीवन में प्रचंड संकल्प के सहारे कुछ भी पाना असंभव नहीं है। मनुष्य के प्रचंड संकल्प के आगे तो प्रकृति को भी झुकना पड़ा है। जो किसी चीज को पाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है, उसे उस चीज़ को हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता।
– अज्ञात
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