Last Updated on September 25, 2023 by Jivansutra
Best Moral Story in Hindi for Class 8
– चाणक्य
प्राचीन समय की बात है। दैत्यों के राजा प्रहलाद ने अपने शील के बल पर इंद्र से स्वर्ग का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। हार जाने पर इंद्र दुखी होकर देवगुरु बृहस्पति के पास गये और उनसे अपने खोये ऐश्वर्य को पुनः पाने का उपाय पूछा। बृहस्पति ने उन्हें इस विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिये शुक्राचार्य के पास जाने को कहा।
इंद्र ने शुक्राचार्य के पास पहुँचकर अपना प्रश्न दोहराया, तो दैत्यगुरु ने उनसे कहा कि इसका विशेष ज्ञान तो महात्मा प्रहलाद को ही है, आप उन्ही के पास चले जाइये। यह सुनकर इंद्र प्रसन्न होकर वहाँ से चले गये और एक ब्राहाण का रूप धरकर प्रह्लाद के पास पहुँचे। उन्होंने विनम्रता से प्रह्लाद से ऐश्वर्य प्राप्ति का उपाय पूछा। परीक्षा लेने के उद्देश्य से पहले तो प्रह्लाद ने इंद्र को मना कर दिया।
लेकिन फिर उनकी निष्ठा और अटल संकल्प को देखकर उस ज्ञान का तत्व समझाया। प्रह्लाद से दुर्लभ उपदेश पाकर भी इंद्र ब्राहाणवेश में उनकी सेवा करने लगे। इस तरह सेवा करते-करते बहुत समय बीत गया। एक दिन प्रह्लाद ने प्रसन्न होकर ब्राहाण वेशधारी इंद्र से कहा, “विप्रवर! तुमने गुरु के समान मेरी सेवा की है, अतः मै तुम्हारे सदाचरण से प्रसन्न होकर तुम्हे वरदान देना चाहता हूँ।
तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे माँग लो। मै उसे अवश्य पूर्ण करूँगा। ब्राहाण ने कहा, “महाराज, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे मेरा मनचाहा वर देना चाहते हैं तो मै आपसे वर में आपका ही शील माँगता हूँ। ऐसा वरदान माँगने पर प्रह्लाद को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है, फिर भी ‘तथास्तु’ कहकर उन्होंने ब्राहाण को वह वर दे ही दिया।
वरदान पाकर इंद्र तो चले गये पर प्रह्लाद के मन में बड़ी चिंता पैदा हो गई। वे सोचने लगे कि क्या करना चाहिये? पर किसी निश्चय पर न पहुँच सके। इतने में ही उनके शरीर से एक परम देदीप्यमान छायामय तेज मूर्तिमान होकर प्रकट हुआ। उसे देखकर प्रह्लाद ने आश्चर्य से पुछा, “आप कौन हैं?” उस दिव्य पुरुष ने उत्तर दिया, “राजन मै शील हूँ।
तुमने मुझे त्याग दिया है इसलिये अब तुम्हारे पास से जा रहा हूँ। अब मै उसी ब्राहाण के शरीर में निवास करूँगा जो तुम्हारा शिष्य बनकर तुम्हारी सेवा कर रहा था। यह कहकर वह अदभुत तेज वहाँ से अद्रश्य हो गया और इंद्र के शरीर में प्रवेश कर गया। शील के जाने के बाद उसी तरह का दूसरा तेज उनके शरीर से प्रकट हुआ।
प्रह्लाद ने उससे भी पूछा – “आप कौन हैं? उसने कहा – “प्रह्लाद मुझे धर्म समझो। मै भी उस ब्राहाण के पास ही जा रहा हूँ; क्योंकि जहाँ शील होता है मै भी वहीँ रहता हूँ। ऐसा कहकर जैसे ही धर्म विदा हुआ वैसे ही एक तीसरा तेजोमय विग्रह प्रकट हुआ। प्रह्लाद ने उससे भी वही प्रश्न पूछा ‘आप कौन हैं?’ उस तेजस्वी पुरुष ने उतर दिया “असुरराज! मै सत्य हूँ और धर्म के पीछे जा रहा हूँ।
सत्य के जाने के बाद एक महाबलवान पुरुष प्रकट हुआ। पूछने पर उसने कहा- “प्रह्लाद! मुझे सदाचार समझो। जहाँ सत्य रहता है वहीँ मै भी निवास करता हूँ। सत्य के चले जाने पर प्रह्लाद के शरीर से बड़े जोर से गर्जना करता हुआ एक तेजस्वी पुरुष प्रकट हुआ। पूछने पर उसने बताया, “मै बल हूँ, और जहाँ सदाचार गया है वहीँ मै भी जा रहा हूँ। यह कर वह चला गया।
अंत में प्रह्लाद के शरीर से एक परम सुन्दर देवी प्रकट हुई। आश्चर्य से भरे दैत्यराज ने उस सुंदरी से प्रश्न किया- “आप कौन हैं? पूछने पर उस दिव्य स्त्री ने कहा मै लक्ष्मी हूँ, चूँकि तुमने बल को त्याग दिया है इसलिये मै भी यहाँ से जा रही हूँ। क्योंकि जहाँ बल रहता है वहीँ मै भी रहती हूँ।प्रह्लाद ने पुनः प्रश्न किया- देवी! तुम कहाँ जा रही हो? वह ब्राहाण कौन था?
और आप सभी तेजोमय पुरुष दीर्घकाल तक मुझमे निवास करने के पश्चात अब क्यों छोड़कर जा रहे हैं? मै इसका रहस्य जानना चाहता हूँ। लक्ष्मी बोली- “तुमने जिसे उपदेश दिया था वह कोई सामान्य ब्राहाण नहीं, बल्कि साक्षात इंद्र ही थे। तीनों लोकों में तुम्हारा जो ऐश्वर्य फैला हुआ था, वह उन्होंने हर लिया है।”
“धर्मज्ञ! तुमने शील के द्वारा ही तीनों लोकों पर विजय पाई थी, यह जानकर इंद्र ने तुम्हारे शील का हरण कर लिया है। धर्म, सत्य, सदाचार, बल और मै ये सभी शील के आधार पर ही टिके रहते हैं। शील ही सब सद्गुणों की जड़ है।” यह कहकर लक्ष्मी भी सभी सद्गुणों के साथ वहीँ चली गई जहाँ शील गया था। वास्तव में शील से बढ़कर दौलत सारी दुनिया में कहीं नहीं है।
सम्मान, श्री, ऐश्वर्य, विद्या, उदारता, विनम्रता, क्षमा, निष्कपटता समेत सभी सद्गुण शीलवानों के पास खिचे चले आते हैं और वे महापुरुष जिन्हें संसार उनकी अप्रतिम सेवाओं के लिये आज भी याद रखे हुए है, जिनका चिरयश सूर्य की भाँति सदा देदीप्यमान रहेगा, इस बात का ज्वलंत प्रमाण है।
– महाभारत
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