Last Updated on August 26, 2018 by Jivansutra
Best Hindi Story on Life of A Businessman
– मार्क ट्वेन
इस शानदार और प्रेरक कहानी का पिछला भाग आप Hindi Story on Positive Attitude: सुखमय जीवन का सनातन रहस्य में पढ़ ही चुके हैं। अब प्रस्तुत है अगला भाग –
इतने पैसों से आप फिर से अपना व्यापार फैला सकते हैं और एक चिंतामुक्त, सुखमय जीवन जी सकते हैं। इससे न केवल आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा ही बची रहेगी, बल्कि आपका अमूल्य शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शांति भी आपका साथ न छोड़ेंगी।” “सेठजी! जरा सोचिये, आपके पास तो अभी भी दस लाख रूपये बचे हुए हैं और मेरे पास तो अपना कहने को कुछ भी नहीं हैं।
रूखी-सूखी खा लेता हूँ और मजे से चैन की जिंदगी जीता हूँ। तन ढकने भर को बस दो जोड़ी कपडे हैं और बाकी जो कुछ भी अतिरिक्त मिलता है वह सब समाज की सेवा में लगा देता हूँ। इतने पर भी न तो मुझे किसी बात की चिंता है और न ही मुझे लोगों से मिलने वाले प्रेम, सहयोग और सम्मान में ही कोई कमी आई है।”
पूज्य आचार्य जी की बाते सुनकर सेठजी की बुद्धि पर पड़ा अज्ञान का पर्दा हट गया। भविष्य की वह चिंता जो नकारात्मक द्रष्टिकोण से उपजी थी और उन्हें रात-दिन खाये जा रही थी, तुरंत ही दूर होकर हर्षातिरेक में बदल गयी। उनकी आँखों से आनंद के आँसु बह निकले। वे आचार्यजी के चरणों में नतमस्तक होते हुए बोले, “आचार्य जी, आपने मुझे मरने से बचा लिया।
मै तो जीवन से बिल्कुल निराश हो गया था। एक आप हैं जो अकिंचन होते हुए भी दिव्य संपत्ति के स्वामी हैं, और मै इतनी संपत्ति के होते हुए भी, इतना कुछ होने के बाद भी स्वयं को दुर्भाग्यशाली और कंगाल समझता रहा।” आचार्य जी ने कुछ मनोविनोद करते हुए पूछा, “तो सेठजी अब तो आपकी समस्या का समाधान हो गया है ना!, अब तो आप अच्छे से खायेगें-पीयेंगे न! अब तो आपको सुख-चैन की नींद आएगी न!”
सेठजी ने श्रद्धावनत होकर आचार्यजी से कहा, “गुरूजी आज आपके पास आकर ही मै जीवन का वास्तविक रूप समझ पाया हूँ। अब मै अपना बचा हुआ जीवन आपके बताये उपदेशों के अनुसार ही गुजारूँगा।” सेठजी प्रसन्नचित होकर जैसे आये थे वैसे ही लौट गये। जीवन सुख-दुःख की धूप-छाँव है। यहाँ अगर आनंद के अवसर आते हैं, तो कभी-कभी मुश्किलें भी रास्ता रोककर खड़ी हो जाती हैं।
लेकिन अगर अपना नजरिया सकारात्मक रखा जाय, तो कड़ी से कड़ी मुश्किलों का सामना भी धैर्यपूर्वक किया जा सकता है। पर यदि कहीं द्रष्टिकोण नकारात्मक हो जाय, तो जिंदगी को बोझिल बनते देर नहीं लगती और फिर मुश्किलें इंसान को धीरे-धीरे वैसे ही चूर-चूर कर डालती हैं जैसे नदी की तेज धार पत्थर को फोड़ डालती है।
सेठजी अगर इतनी संपत्ति होते हुए भी खुद को कंगाल समझ रहे थे और अमूल्य जीवन को नष्ट करने पर तुले थे, तो इसका कारण मात्र इतना ही था कि उन्होंने एक स्वस्थ और संतुलित द्रष्टिकोण को अपने जीवन से बाहर निकाल फेंका था।
वह केवल अपनी मुश्किलों पर ही नजरे लगाये हुए थे। और जब हमारा ध्यान सिर्फ जीवन की मुश्किलों पर ही केन्द्रित होता है, तब हम कभी भी उसे नहीं देख पाते हैं जो पहले से ही हमारे अधिकार में होता है और बिल्कुल हमारे समीप होता है।
– अरविन्द सिंह
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